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ISSN Print: 2394-7500, ISSN Online: 2394-5869, CODEN: IJARPF

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Vol. 3, Issue 6, Part L (2017)

दलित विमर्शः एक चेतना

दलित विमर्शः एक चेतना

Author(s)
निर्मला
Abstract
दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ है जिसका दलन और दमन हुआ है, दबाया गया है, शोषित, उत्पीड़ित, सताया हुआ, अपेक्षित, घृणित, हतोत्साहित आदि। आधुनिक हिन्दी साहित्य में साहित्य में साहित्यकारों ने विमर्श का एक नवीन आकार निर्मित किया है जिसके अन्तर्गत दलित साहित्य को चिंतन का विस्तृत फलक प्रदान किया गया है। दलित विमर्श से अभिप्राय उस साहित्य से है, जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है, अपने जीवन संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित विमर्श उनकी उसी अभिव्यक्ति का विमर्श है। यह कला के लिए कला नहीं बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का विमर्श है। दलित चेतना का पूरा चित्रण दलित साहित्य में समाहित है। इसका सम्बन्ध सांस्कृतिक, संस्कारों एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से है। मूलतः भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था के आधार पर जो जातिगत बंटवारा हुआ है। यह पूर्णतः असमानता, वर्चस्व और शोषण पर आधारित है। दलित कोई एक रूपीय समाज नहीं है। इसकी अनेक परते है। दलित साहित्य के पीछे दलित चेतना की प्रमुख भूमिका है क्योंकि दलित चेतना से ही दलित स्वाभिमान जागता है। दलित अस्मिता की भावना बढ़ती है। इस साहित्य को सबसे पहले डाँ भीमराव अंबेडकर ने दलित साहित्य का नाम दिया था। इनकी अद्भुत सोच व चेतना का ही परिणाम है कि दलित साहित्य एक प्रमुख धारा बन चुका है। आधुनिक शब्दों में साहित्य समाज का अल्ट्रासाउण्ड है। सामाजिक मुद्दों को उजागर करना साहित्य का ही काम है। दलित साहित्य उतना ही प्राचीन है जितना हिन्दी साहित्य। दलित साहित्यकारों ने इसी छुआछुत को मिटाने के लिए समाज और अपनी स्थिति की उपस्थिति दर्ज करने के लिए साहित्य का सृजन करना प्रारम्भ किया।
Pages: 852-855  |  14495 Views  1546 Downloads
How to cite this article:
निर्मला. दलित विमर्शः एक चेतना. Int J Appl Res 2017;3(6):852-855.
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