International Journal of Applied Research
Vol. 2, Issue 11, Part B (2016)
प्रसाद के काव्य: जीवन दृष्टि और स्वरूप
Author(s)
संगीता पाण्डेय
Abstract
सौन्दर्य की समग्र अनुभूति के क्षेत्र में चिन्तन और भावनागत जो भी उत्कृष्टतम तात्विक स्फूर्तियाँ मानव को आज तक उपलब्ध हुई है, प्रायः वे सब ‘प्रसाद’ के अनुभव पथ में आ चुकी हैं और उनके साहित्य में निरूपति की जा चुकी है, और इसी में ‘प्रसाद’ की सौन्दर्यानुभूति की पूर्णता निहित है। प्रसाद मूलतः युग सृष्टा साहित्यकार थे। केवल प्रत्यभिज्ञा दर्शन की उद्भावना, उनका लक्ष्य नहीं था। पुनरुत्थान युग के समग्र नवीन दर्शनों और भारतीय अद्वैत भावना के साथ युग मानव का पूर्ण विकास ही उनका प्रतिपाद्य रहा। लोकजीवन के प्रांगण में इहलोक के अनुकूल जड़ दर्शन और आत्मा के पूर्ण परिष्करण के लिए अद्वैत दर्शन के समन्वय में ही प्रसाद की दार्शनिक चेतना का आलोक मिलता है। प्रसाद की जीवन दृष्टि के अनुसार छायावाद की नवीन अभिव्यक्ति भंगिमा प्राचीन काल में भी समृद्ध रूप में विद्यमान रही है। उसके आत्म स्पर्श की अनुमति के साथ-साथ अन्तर दर्शन व्यंजना का सौन्दर्य भी दृष्टव्य है। इन्हीं मान्यताओं से छायावाद काल में जयशंकर प्रसाद की साहित्यिक जीवन दृष्टि सबसे अधिक पुष्ट हुई। श्रृंगार प्रवणता के अन्तर्गत प्रकृति के प्रतीकों द्वारा नारी के अतीन्द्रिय सौन्दर्य की वर्णन वाली चेतना प्रसाद काव्य में लक्षित होती है।
How to cite this article:
संगीता पाण्डेय. प्रसाद के काव्य: जीवन दृष्टि और स्वरूप. Int J Appl Res 2016;2(11):89-93.