Vol. 6, Issue 11, Part E (2020)
प्रसाद के नाटकों में स्त्री-विमर्श का उभरता स्वरूप
प्रसाद के नाटकों में स्त्री-विमर्श का उभरता स्वरूप
Author(s)
अर्चना कुमारी
Abstract
ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में स्त्री-अस्मिता का उभरता हुआ स्वरूप बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। ध्रुवस्वामिनी एक ऐसी स्त्री है जो तथाकथित स्त्री-सुलभ आवरण को उठा फेंकती है और संभाषण के आरम्भ से ही उसके भीतर ओज और आधुनिक स्त्रियोचित वेग दिखाई देता है। चाहे पति रामगुप्त हो, चाहे शिखर स्वामी हो या राजदरबार का अन्य कोई सदस्य। सभी के साथ वह तर्कपूर्ण ढंग से निर्भीकतापूर्वक संवाद कर सबको निरूत्तर करती है। रामगुप्त से प्रथम बार मिलते समय ही वह कहती है- ‘इस प्रथम संभाषण के लिए मैं कृतज्ञ हुई महाराज! किन्तु मैं भी यह जानना चाहती हूँ कि गुप्त साम्राज्य क्या स्त्री सम्प्रदान से ही बढ़ा है?’ इसके बाद शिखर स्वामी से वह कहती है- ‘यह तो हुई राजा की व्यवस्था, अब सुनूँ मंत्री महोदय क्या कहते हैं।” इतना ही नहीं पुरुषसत्ताशील समाज को चुनौती देते हुए और उभरते हुए स्त्री अस्मिता का एहसास करते हुए वह कहती है- ‘कुछ नहीं, मैं केवल यही कहना चाहती हूँ कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु-सम्पत्ति समझ कर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो। हाँ, तुम लोगों को आपत्ति से बचाने के लिए मैं स्वयं से चली जाऊँगी।’
How to cite this article:
अर्चना कुमारी. प्रसाद के नाटकों में स्त्री-विमर्श का उभरता स्वरूप. Int J Appl Res 2020;6(11):286-287.