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ISSN Print: 2394-7500, ISSN Online: 2394-5869, CODEN: IJARPF

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Vol. 7, Issue 3, Part G (2021)

शंकर के अद्वैत वेदांत का विश्लेषणात्मक अध्ययन

शंकर के अद्वैत वेदांत का विश्लेषणात्मक अध्ययन

Author(s)
डॉ0 शिखर वासिनी
Abstract
आदि शंकर ने जिस कर्म सिद्धांत का प्रतिपादन किया वह व्यवहार और परमार्थ दोनों के लिए प्रासंगिक जान पड़ता है। उनकी अवधारणा है कि आत्म ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के जीवन में निष्काम कर्म स्वयं फलित हो जाता है। उन्होंने स्पष्ट किया की मलिन चित्त वाले व्यक्ति आत्म साक्षात्कार की अनुभूति से वंचित रहते हैं। जबकि नित्य कर्म के अनुष्ठान में संलिप्त व्यक्ति चित्त शुद्धि को उपलब्ध होता है।जिससे जीव आत्मस्वरुप का बोध करता है। उन्होंने अपने भाष्य में स्पष्ट कहा है कि कर्म द्वारा संस्कारित होने पर ही विशुद्ध आत्मा अपने वास्तविक बोध का वरण करने की सामर्थ्य अर्जित करती है। उनका तर्क था कि ज्ञान की प्रभा से आलोकित व्यक्ति और हृदय अपनी देह का दुरुपयोग कर ही नहीं सकता। जैसा की वासनालिप्त व्यक्ति करता है। शंकर के अनुसार समग्र नैतिकता की जड़ें ज्ञान में ही प्रतिष्ठित हैं। शंकराचार्य मानते हैँ कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है (ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या)। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में ‘‘अहं ब्रह्मास्मि‘‘ ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म‘ (यह सब ब्रह्म है), तत्वमसि (तत् त्वम् असि), तू (जीव) वह (ब्रह्म) है जैसे महावाक्य ब्रह्म की अद्वैतता की ही पुष्टि करते हैं।शंकर ने तर्क दिया कि उपनिषद ब्रह्म (परम तत्त्व) की प्रकृति की शिक्षा देते है और सिर्फ अद्वैत ब्रह्म ही परम सत्य है।
Pages: 469-474  |  1923 Views  1625 Downloads
How to cite this article:
डॉ0 शिखर वासिनी. शंकर के अद्वैत वेदांत का विश्लेषणात्मक अध्ययन. Int J Appl Res 2021;7(3):469-474.
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