Vol. 9, Issue 9, Part B (2023)
नारी के परिप्रेक्ष्य में कला के विकास की संभावनाएं
नारी के परिप्रेक्ष्य में कला के विकास की संभावनाएं
Author(s)
सविता वर्मा
Abstractकला के प्रारंभिक स्वरूप पर दृष्टिपात करें तो नारी के विभिन्न रूपों तथा उसके वैशिष्ट्य का अनुमान हो जाता है । ईश्वर ने संसार की रचना के अंतर्गत नारी को अनेक विशेष गुणों से परिपूर्ण बनाया है । नारीत्व में निहित दया, करुणा, प्रेम, वात्सल्य नारी को विशिष्टता प्रदान करते हैं ।इसके अतिरिक्त कलागत अभिव्यक्ति से उसके अनेक अवतार सामने आते हैं । कहीं वह अप्सरा है तो कहीं लौकिक नारी, कहीं कुलवधू है तो कहीं सेवा में समर्पित दासी, वह शक्ति रूपा देवी भी है और त्रासदी से ग्रस्त अबला भी वह सृष्टि भी है और सृजिका भी । चित्रणीय दृश्य के अनुसार चाहे वह नायिका है अथवा सहनायिका, जननी है अथवा प्रेयसी विभिन्न भूमिकाओं में वह अंकित हुई है किंतु अंततोगत्वा रहती वह "नारी" ही … जिसके श्रवण, स्पर्श स्मरण अथवा दर्शन मात्र से ही चित् भावविह्वल हो जाता है । हर युग में नारी की स्थिति परिवर्तित हुई है । कभी समाज ने उसकी प्रशंसा की है, तो कभी उसे दासी समझकर उसकी अवहेलना की है। मनु स्मृति में लिखा है - "यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमंते तत्र देवत:। यत्रे वास्तु न पूज्यंते सर्वास्तत्राफल: क्रिया।" अर्थात जहां स्त्री की पूजा की जाती है वहां देवता वास करते हैं।
सन् 1970 के दशक में महिला कलाकारों की कला में कुछ परिवर्तन आया । अब उनमें आत्म जागृति का उदय हुआ । सन् 1986 ललित कला अकादमी, त्रिवेणी कला संगम नई दिल्ली, भारत सरकार के मानव अधिकार एवं विकास मंत्रालय, शिक्षा एवं सांस्कृतिक मंत्रालय, वूमन वेलफेयर मंत्रालय एवं राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, नई दिल्ली के संयुक्त प्रयासों से "भारतीय महिला कलाकार"शीर्षक से देश की प्रमुख महिला कलाकारों की संयुक्त कला प्रदर्शनी का आयोजन किया गया।
How to cite this article:
सविता वर्मा. नारी के परिप्रेक्ष्य में कला के विकास की संभावनाएं. Int J Appl Res 2023;9(9):107-111.