Abstractकाव्य उस विशाल वट-वृक्ष के समान है, जिसकी शाखा-प्रशाखाएं शब्द, अर्थ, गुण, दोष, रीति, छन्द तथा अलङ्कारादि हैं तथा उसकी प्राणदायिनी शक्ति ‘रस’ है। रस शब्द का अर्थ वेदों में स्पष्ट रूप से मिलता है। वनस्पतियों के रस का वैदिक युग में प्रचुर प्रयोग होता था। ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ में परम ब्रह्म को रस कहा गया है, क्योंकि उसको प्राप्त करके जीव आनन्द का अनुभव करता है। भरत के रूपकों की रचना में रस को ‘अथर्ववेद’ से ग्रहण किया गया है, जिसका उल्लेख उन्होंने स्वयं ही किया है-
जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च ।
यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि ।।
रस सिद्धान्त का विस्तृत शास्त्रीय विवेचन प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ में ई.पू. प्रथम शताब्दी में निश्चित रूप से हो चुका था इससे पहले का कोई विवेचन उपलब्ध नहीं है।
'रस' शब्द की व्युत्पत्ति चार प्रकार से की जा सकती है।
1.रस्यते आस्वाद्यते इति रस: जिन पदार्थों का आस्वादन किया जाता है, वे रस कहलाते हैं।
2.रस्यते अनेन इति रस: वे पदार्थ जिनके द्वारा आस्वादन किया जाता है।
3.रसति रसयति वा रस: जो पदार्थ व्याप्त हो जाते हैं अथवा व्याप्त कर लेते हैं, वे रस कहलाते हैं।
4.रसनं रस आस्वाद: जो आस्वाद है उसको रस कहते हैं।
उपर्युक्त व्युत्पत्तियों में से प्रथम तथा चतुर्थ व्युत्पत्तियाँ साहित्यिक रस के लिए उपयोगी हैं, क्योंकि आस्वादरूप होने के कारण साहित्यिक रसों का भी आस्वादन होता है।