स्त्री विमर्श की अवधारणा और स्वरूप
Author(s)
आलोक कुमार
Abstract
"विमर्श" का तात्पर्य केवल विचार-विमर्श या चर्चा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक गहरी आत्मचेतना, आत्मसम्मान, और समानता की माँग है। विमर्श का सीधा संबंध सोच-विचार, विनिमय और विवेचन से है। साहित्यिक जगत में आज स्त्री-विमर्श को उसी आधार पर देखा जाता है, जिसमें स्त्रियों के अनुभव, उनकी पीड़ा और उनके अधिकारों की आवाज़ शामिल है। सदियों से चली आ रही स्त्री-शोषण और दमण (दमन) की घटनाओं ने स्त्री-चेतना को जागृत किया। इस जागरूकता ने न केवल स्त्री के अस्तित्व के प्रति उसके बोध को बल दिया, बल्कि स्त्री-विमर्श को भी जन्म दिया, जो आत्मचेतना, आत्मसम्मान, आत्मगौरव तथा समानता की माँग का दूसरा नाम बन गया।यह वैचारिक आंदोलन स्त्रियों के अधिकारों की मांग करते हुए उनकी मुक्ति का भी संदेश देता है। यह आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, वैचारिक और लिंग-आधारित विभेदों को अस्वीकार करता है और समान मानवीय अधिकारों की आवश्यकता पर जोर देता है।स्त्री-विमर्श में यह माना गया है कि स्त्री का अपना अस्तित्व और उसकी देह, जिसका अक्सर शोषण का कारण बनता रहा है, स्त्री के अधिकारों और मुक्ति के संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। स्त्री को उसके शारीरिक अनुभवों से ही अपनी पहचान का बोध हुआ है, और इसी से उसकी मुक्ति का मार्ग भी खुलता है।आज स्त्री-विमर्श के कारण न केवल साहित्य में, बल्कि समाज के हर क्षेत्र में स्त्रियों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिल रहे हैं। यह आंदोलन स्त्री को उसके अधिकार, सम्मान और स्वतंत्रता की ओर अग्रसर करता है, जिससे समाज में समानता और न्याय की दिशा में सकारात्मक परिवर्तन संभव हो पाते हैं।स्त्री-विमर्श न केवल एक साहित्यिक चर्चा है, बल्कि यह स्त्री की आज़ादी, आत्म-सम्मान और समानाधिकार के लिए एक सशक्त आंदोलन भी है, जो आधुनिक समाज में स्त्रियों के जीवन को नई दिशा दे रहा है।
How to cite this article:
आलोक कुमार. स्त्री विमर्श की अवधारणा और स्वरूप. Int J Appl Res 2025;11(3):185-189.