स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन की प्रासंगिकता का अध्ययन
Author(s)
डाॅ. मधु कान्त झा
Abstract
स्वामी विवेकानन्द भारत के बहुमूल्य रत्न एक जीवित क्रांति के मिशाल थे, एक व्यक्ति नही एक चमत्कार थे। आज से प्रायः एक सदी पहले पराधीन और पददलित भारत के जिस एकाकी और अंकिचन योद्धा संयासी ने हजारों मील दूर विदेश में नितांत अपरिचितों के बीच अपनी ओजमयी वाणी में भारतीय धर्म साधना के चिरंतन सत्यों का जयघोष किया। स्वामी विवेकानन्द सामायिक भारत में उन कुशल शिल्पियों में हैं जिन्होने आधाराभूत भारतीय जीवन मूल्यों की आधुनिक अंतराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में विवेक संगत व्याख्या की। स्वामी विवेकानन्द के जीवन कोश में भारतीय नव निर्माण के उर्वर बीच यत्नपूर्वक संकलित है ही, उसमें पीड़ित और जर्जरित मानवता के पुनर्सृजन की कार्यात्मक कार्यसाधन योजना भी सम्मिलित है। भारत के लिए स्वामी जी के विचार चिंतन और संदेश प्रत्येक भारतीय के लिए अमूल्य धरोहर है तथा उनके जीवन शैली और आदर्श प्रत्यके युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवन का प्रवाधान लक्ष्य भारत के स्वामी जी भारतीय संस्कृति शिक्षा तथा धर्म के समग्रता के संबंध ने आज हमारे सामने विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए यह आह्नवान कि “मानव स्वाभाव गौरव को कभी मत भूलो । हममें से प्रत्येक व्यक्ति यह घोषणा करेें कि मैं ही ईश्वर हूँ जिससे बड़ा कोई न हुआ है और न ही होगा। उनके विचारानुसार शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना मात्र नही है अपितु उसका लक्ष्य जीवन चरित्र और मानव का निर्माण करना होता है। चूंकि वर्तमान शिक्षा उन तत्वोंसे युक्त नही है अतः वह श्रेष्ठ शिक्षा नही है। वे शिक्षा के वर्तमान रूप को अभावात्मक बताते थे जिसमें विद्यार्थियों को अपनी संस्कृति का ज्ञान नही होता। भारत की गुरू शिष्य परंपरा जिसमें विद्यार्थियों तथा शिक्षकों में निकटता के संबंध नया संपर्क रह सकें तथा विद्यार्थियों में पवित्रता ज्ञान, धैर्य, विश्वास, विनम्रता आदि के श्रेष्ठ गुणों का विकास हो सके। वे धर्म के संबंध में किसी एक धर्म को प्राििमकता नही देते थे, स्वामी जी मानव धर्म के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ थे। उन्होने धार्मिक संकीर्णता से ऊपर उठते हुए यह घोषणा की प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय जिस भाव में ईश्वर की आराधना करता है, मैं उनमे से प्रत्येक यके साथ ठीक उसी भाव से आराधन करूंगा। स्वामी जी के अनुसार बाईबिल, वेद, गीता, कुरान तथा अन्य धर्मग्रंथ समूह मानों ईश्वर के पुस्तक में के एक-एक पृष्ठ है। वे प्रत्येक धर्म को महत्व देते थे तथा उनके सारभूत तत्वों को जो मानव जीवन को उनका चरित्र तथा ज्योति प्रदान करने में सक्षम हो को अपनाने का आहवान करते थे जिसे एक नाम दिया गया “सर्व धर्म सम्भाव”। उन्होंने प्रत्येक धर्म के विषय में कहा कि कोई व्यक्ति जन्म से हिन्दू, ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख या अन्य धर्म के नहीं होते। उनके अपने माता पिाता, पूर्वज जिस संस्कृतिक संस्कार या परंपर से जुड़े रहते है। वे उसे सीखते और आज्ञा पालन करने वाले होते हैं। मानव से बढ़कर और कोई सेवा श्रेष्ठ नही है और यहीं से शुरू होता है वास्तविक मानव की जीवन यात्रा। हमें आज आवश्यकता है स्वामी जी के आदर्शों पर चलने हेतु दृढ़ प्रतिज्ञ होने, उनके शिक्षा विचार संदेश तथा दर्शन को साकार रूप में अपना लेने की। स्वामी जी के जीवन शैली को आत्मसात करके जन जन में एकता प्रेम और दया की नदियाँ बहाकर नए युक की शुरूआत करने की। तो आईये जाति, धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और अन्य संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर एक दूसरे का हाथ थामकर माँ भारती को समृद्धि, विकास और उपलब्धि की ओर ले जाए।