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ISSN Print: 2394-7500, ISSN Online: 2394-5869, CODEN: IJARPF

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Vol. 2, Issue 1, Part D (2016)

मानव सभ्यता के विकास में लौह उपयोग का योगदानः एक ऐतिहासिक अध्ययन

मानव सभ्यता के विकास में लौह उपयोग का योगदानः एक ऐतिहासिक अध्ययन

Author(s)
ललित कुमार झा
Abstract
मानव सभ्यता के विकास में लौह उपयोग का बहुत बड़ा योगदान रहा है। पुरातात्विक खोंजों से अबतक का जो प्रमाण मिला है उससे यही संकेतित है कि प्रथम सहस्त्राब्दी ई0 पू० 50 के प्रथमार्द्ध में इस अत्यन्त ही उपयोगी धातु की तकनीक गंगा के विभाजित मैदान तथा इसके उच्च तटवर्ती क्षेत्र में विकसित थी। इन दोनों ही क्षेत्रों में जिस तरह की सामाजिक-आर्थिक संरचना दीखती है उसकी पृष्ठभूमि चित्रित घूसर मृदमाण्ड (पी0 जी0 वेयर) अर्थात् प्रथम लौह काल से सम्बद्ध कही जा सकती है। पुराविदों की राय में इस कालखण्ड में प्रायः जहाँ जैसी मानवीय बस्तियाँ आबाद हुई उनका सीधा या प्रत्यक्ष सम्पर्क चित्रित घूसर भाण्ड वाली संस्कृति से था। भारतीय उपमहाद्वीप में इसका प्रसार क्षेत्र बहुत ही व्यापक एवं विस्तार वाला है। उत्खनन आधारित साक्ष्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पाकिस्तान का बहावलपुर क्षेत्र पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के सीमान्त क्षेत्र इसी संस्कृति की परिधि में आते थे। ऐसा नहीं कि इस संस्कृति के विकास की अवधि छोटी थी बल्कि कहना यह चाहिये कि तीन शताब्दी या इससे कुछ अधिक कालखण्ड तक इसका अस्तित्व कायम रहा। यही वही क्षेत्र है जहाँ कभी इतिहास प्रसिद्ध भद्रों, कुरू पांचालों, शूरसेनों और मत्स्यों के आधिपत्य का परचम लहराया करता था। कथन का यह अभिप्राय भी नहीं कि चित्रित घूसर भाण्ड वाली संस्कृति का उन््मेष केवल इन्हीं क्षेत्रों में हुआ और देश के अन्य भाग इससे अछूते रहे। यह वास्तविकता है कि लगभग 1000 ई0० पू0 से उत्तरी भारत में नये प्रकार के भाण्ड सीधे तौर पर प्रयोग में आने लगे थे। मानव बस्तियों के साथ पी0 जी0 वेयर जैसे भाण्ड का सम्बन्ध बहुत घना दीखता है । अबतक 700 से भी अधिक स्थलों का सम्बन्ध इस सांस्कृतिक महत्त्व के माण्ड के साथ प्रमाणित हो चुका है। प्रस्तुत पत्र में मानव सभ्यता के विकास में लौह उपयोग के योगदान पर चर्चा की गई है।
Pages: 259-261  |  1072 Views  664 Downloads
How to cite this article:
ललित कुमार झा. मानव सभ्यता के विकास में लौह उपयोग का योगदानः एक ऐतिहासिक अध्ययन. Int J Appl Res 2016;2(1):259-261.
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