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ISSN Print: 2394-7500, ISSN Online: 2394-5869, CODEN: IJARPF

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Vol. 3, Issue 7, Part L (2017)

जैन धर्म का उद्भव एवं विकासः प्रतिमाओं की लाक्षणिक कलाएँ

जैन धर्म का उद्भव एवं विकासः प्रतिमाओं की लाक्षणिक कलाएँ

Author(s)
बद्री नारायण माधव
Abstract
जैन धर्म के प्राचीन इतिहास को देखने पर पता चलता है कि भारतवर्ष में जैन धर्म व संस्कृति का उद्भव चौबीसवें तीर्थंकर महावीर (छठवीं षताब्दी ईसा पूर्व) के पूर्व ही हो चुका था। पाली साहित्य के कतिपय उल्लेखों में भी महावीर के पूर्व के जैन इतिहास व संस्कृति पर कुछ प्रकाष पड़ता है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि मगध जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था। मगध के षिषुनागवंषी सम्राट श्रेणिक और उनकी साम्राज्ञी चेलना तथा वज्जी गणतंत्र के प्रमुख राजा चेटक जैन धर्म के प्रमुख अनुयायी थे। कोसल में महावीर ने अनेक बार भ्रमण किया उत्तर भारत के अयोध्या, श्रावस्ती, और साकेत जैन धर्म के महत्वपूर्ण केन्द्र रहे हैं। कलचुरियों के षासनकाल में जैन धर्म को दुर्दिनो का सामना करना पड़ा तथापि षिलालेखों से जानकारी मिलती है कि षैवों द्वारा किये गये उत्पीड़न के होते हुए भी जैन धर्म किसी प्रकार अपने को जीवित रख सका। वर्तमान में भारत के अन्य भागों की अपेक्षा पष्चिम भारत, दक्षिणापथ और कर्नाटक में जैन धर्मानुयायियों की संख्या सर्वाधिक है। जैन मंदिरो के अवषेष तथा बड़ी संख्या में तीर्थंकर प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। जैन मंदिरों में तीर्थंकर प्रतिमाओं का प्रतिष्ठापन वरिष्ठता क्रम में होता है। एक से अधिक प्रतिमाओं के स्थापन होने पर मुख्य प्रतिमा मूल नायक कहलाती है जो कि अन्य तीर्थंकर प्रतिमाओं के मध्य में स्थित होती है। ऋषभनाथ, सुपार्श्वनाथ और महावीर प्रमुख मूल नायक माने जाते हैं।
Pages: 826-829  |  542 Views  331 Downloads
How to cite this article:
बद्री नारायण माधव. जैन धर्म का उद्भव एवं विकासः प्रतिमाओं की लाक्षणिक कलाएँ. Int J Appl Res 2017;3(7):826-829.
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