International Journal of Applied Research
Vol. 5, Issue 1, Part E (2019)
उपासना और भक्ति
Author(s)
डाॅ. शंकर शरण प्रसाद
Abstract
उपासना की व्युत्पति है-उप अर्थात् समीप से आसन अर्थात् अवस्थिति। जिस अवस्थिति में जीव को ईष्वरीय सत्ता से सानिध्य प्राप्त होता है उसकी प्रक्रिया को उपासना कहते हैं। जो अखंड है, विभु है, एक रूप है, वही बंधन के द्वारा सीमित हो जाता है और तब उसके अनेक खंड हो जाते हैं। वह विभु आत्मा बंधन के प्रभाव से देह में बद्ध होकर देही हो जाता है और देही होने के कारण अत्पक्ष हो जाता है। बद्धता बढ़ने पर जड़ता बढ़ती जाती है और चेतनात्व स्वरूप तिरोहित हो जाता है। मन यदि प्राण गति के प्राप्त होकर स्थूल दषा में आकर वाक् हो जाता है तब मन उस वाक् में लीन हो जाता है और चित् का अभाव हो जाता है। इस प्रकार प्राण में वाक्, वाक् से वायु और इसी प्रकार अंत में पृथ्वी बनती है। पृथ्वी जल में, जल तेज में, तेज वायु में, वायु आकाष में और इस प्रकार वाक् प्राण में और प्राण मन में लीन हो जाता है। इस प्रकार सृष्टि और लय का प्रवाह चलता रहता है। अब बंधन से मुक्ति ही परम पुरुषार्थ कहलाता है। जिस क्रिया के द्वारा यह जीव मुक्त होता है वही उपासना है।
How to cite this article:
डाॅ. शंकर शरण प्रसाद. उपासना और भक्ति. Int J Appl Res 2019;5(1):482-483.