Vol. 5, Issue 9, Part E (2019)
आधे – अधूरे: आधुनिक – युगीन सांस्कृतिक – पारिवारिक विघटन का जीवन्त दस्तावेज!
आधे – अधूरे: आधुनिक – युगीन सांस्कृतिक – पारिवारिक विघटन का जीवन्त दस्तावेज!
Author(s)
राजीव कुमार प्रसाद
Abstract
आधे – अधूरे नाटक को मोहन राकेश ने अपने पूर्ववर्ती नाटकों - 'आषाढ़ का एक दिन', ' लहरों के राजहंस' की भाँति ऐतिहासिक न बनाकर इसमें आधुनिक सन्दर्भो का उल्लेख किया है। आज के समय में हमारा समाज - विशेषकर नगरीय समाज एक प्रकार से सांस्कृतिक संक्रमण काल से गुजर रहा है। आध्यात्मिकता का लोप होता जा रहा है, हमारे मन से संतोष, धैर्य, सौहार्द आदि गायब होते जा रहे हैं और उनके स्थान पर भौतिकता का साम्राज्य विस्तृत होता जा रहा है। हम भौतिकता के मोहजाल में ऐसे फँस गये हैं कि अब उससे बचने या बाहर निकलने के लिए भी हम कसमसा कर रह जाते हैं। स्वतन्त्रता - प्राप्ति के पश्चात् जब नारी को घर की चाहरदीवारी से बाहर निकलकर कामकाजी, नौकरी - पेशा वाली स्त्री के रूप में काम करने का अवसर मिला तो वह अनेक पुरुषों के सम्पर्क में आई और इस प्रकार युगों - युगों से दबी आ रही विकृत काम - कुण्ठा अपनी समस्त बाधाओं, मर्यादाओं आदि को तोड़कर बाहर निकल आई। विशेषकर मध्य वर्ग के परिवारों में इस भौतिकवादी प्रवृत्ति ने अटूट माने जाने वाले पति - पत्नी, माँ - बेटी आदि के रिश्तों को उसी तरह खोखला कर दिया जिस प्रकार दीपक लकड़ी को और घुन गेंहूं को खोखला कर देते हैं। मोहन राकेश ने ' आधे - अधूरे ' नाटक में इसी आधुनिक - युगीन सांस्कृतिक - पारिवारिक विघटन को दर्शाया है। यह नाटक आधुनिक युग के आधे - अधूरे समाज, परिवार, व्यक्ति, सम्बन्ध आदि के मूल बिन्दुओं को दर्शाता है तथा स्त्री - पुरुष के सम्बन्धों, अमानवीय स्थितियों और पारिवारिक विघटन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं जीवन्त दस्तावेज़ बन गया है।
How to cite this article:
राजीव कुमार प्रसाद. आधे – अधूरे: आधुनिक – युगीन सांस्कृतिक – पारिवारिक विघटन का जीवन्त दस्तावेज!. Int J Appl Res 2019;5(9):359-362.