Vol. 6, Issue 1, Part C (2020)
डॉ. भीमराव अम्बेडकर और प्रजातंत्र की आलोचनात्मक व्याख्या
डॉ. भीमराव अम्बेडकर और प्रजातंत्र की आलोचनात्मक व्याख्या
Author(s)
डाॅ. कपिल खरे
Abstractडॉ. भीमराव अम्बेडकर वर्तमान समय में हमारे समक्ष आधुनिक मिथभंजक के रूप में प्रस्तुत है। भारत और प्रजातंत्र के विषय में परंपरावादियों, सनातनियों, डेमोक्रेट, ब्रिटिश बुद्धिजीवियों और शासकों आदि के द्वारा अनेक मिथकों का प्रचार प्रसार किया गया है। ये मिथक आज भी आम जनता में अपनी जड़ें मजबूती से जमाए हुए हैं।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर की एक और चेतावनी आज बिल्कुल सच साबित होती जा रही है। संविधान सभा में दिए गए अपने अंतिम भाषण में वह कहते हैं -’ क्या इतिहास खुद को दोहराएगा? यह बात चिंतित करती है। जात-पात, पंथ जैसे अपने पुराने शत्रु के अलावा, आगे हमारे पास विविध एवं विरोधी मानसिकता के राजनीतिक दल होंगे? क्या भारतीय लोग उनके मत के ऊपर देश को जगह देंगे या वे लोग देश से ऊपर अपने मत को जगह देंगे? लेकिन इतना तय है कि अगर ये राजनीतिक दल देश के ऊपर अपने मत को रखते हैं, तो निश्चित ही हमारी स्वतंत्रता खतरे में दूसरी बार पहुंच जाएगी और शायद हम हमेशा के लिए इसे खो दें। इस स्थिति से बचने के लिए हम सबको सख्ती से उठ खड़ा होना होगा।’
अब सवाल यह उठता है कि हिंदुस्तान में एक आम आदमी का मूल्य क्या है? मूल्य से अर्थ यह है कि एक आम आदमी की व्यक्ति होने की गरिमा क्या है? उस मानवीय गरिमा का क्या मूल्य है?
यह जानना भी आवश्यक है कि जिस भारतीय संविधान के रचनाकार होने का गौरव उन्हें दिया जाता है, उस संविधान के प्रति उनके मन का भाव क्या था? यह जानने के लिए राज्यसभा के पटल पर 2 सितम्बर, 1953 को बोले गये उनके शब्द सामने रखने चाहिए। राज्यसभा में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था -’मुझे बार-बार बताया जाता है कि तुम इस संविधान के रचयिता हो। दरअसल मुझे अपनी इच्छा के विरुद्ध यह करना पड़ता था जो करने को मुझे कहा जाता था। मैं यह कहने को तैयार हूं कि इस संविधान को जलाने वाला मैं पहला व्यक्ति रहूंगा। मैं इसे बिल्कुल पंसद नहीं करता। यह किसी के लिए अनुकूल नहीं है।’
How to cite this article:
डाॅ. कपिल खरे. डॉ. भीमराव अम्बेडकर और प्रजातंत्र की आलोचनात्मक व्याख्या. Int J Appl Res 2020;6(1):136-139.