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ISSN Print: 2394-7500, ISSN Online: 2394-5869, CODEN: IJARPF

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Peer Reviewed Journal

Vol. 7, Issue 8, Part E (2021)

गीता का निष्काम कर्मयोग

गीता का निष्काम कर्मयोग

Author(s)
अभिनन्दन पाण्डेय
Abstract
कर्म का सिद्धान्त हिन्दू या भारतीय धर्म का मूल है। कर्म का अर्थ है क्रियाध्ंबजध्ंबजपवदध्चमतवितउंदबमध्कनजल कर्म के दो प्रकार है:-
1. सकाम कर्म
2. निष्काम कर्म
सकाम कर्म वे कर्म होते है जो हमें जन्म-मरण के चक्र में बाँधे रहते है, हम इनसे मुक्त नहीं होते। यह कर्म का प्रथम चरण होता है। सामान्य मनुष्य इसी प्रकार के कर्म करते है। संपूर्ण सृष्टि जमा व खर्च का ही खेल है। इच्छा फल-भावना इत्यादि यही इसके मूल है।
निष्काम कर्म हमें बंधन में नहीं बाँधते है, यही हमें मुक्ति दिला सकते है, यह कर्म केेवल कर्म की भावना से ही किये जाते है न कि फल की प्राप्ति की भावना से निष्काम कर्म ही श्रीमद्भगवदगीता का मूल है। यही केवल मूल रूप से सम्पूर्ण भारतीय दर्शन के कर्म को फल की भावना से न करने का मूल भी है। चित्त के शुद्धि का मूल भी निष्काम कर्म ही है।
श्रीकृष्ण इसे ’निष्काम कर्म-योग’ कहते है जो साधना का आदर्श यानी साध्य व साधना दोनो है। यही जीवन की सच्चाई को अभिभूत करने का आदर्श भी है।
Pages: 353-355  |  4279 Views  3560 Downloads


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How to cite this article:
अभिनन्दन पाण्डेय. गीता का निष्काम कर्मयोग. Int J Appl Res 2021;7(8):353-355.
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