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International Journal of Applied Research
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ISSN Print: 2394-7500, ISSN Online: 2394-5869, CODEN: IJARPF

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Peer Reviewed Journal

Vol. 2, Issue 3, Part M (2016)

“जैन दर्शन में सत्य की अवधारणा”

“जैन दर्शन में सत्य की अवधारणा”

Author(s)
डॉ. अंजना रानी
Abstract
“सत्यमेव जयते” मुंडकोपनिषद से लिया गया यह वाक्य हमारे भारत देश का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। इसका अर्थ है -सत्य ही जीतता है। किंतु जीवन का अनुभव कहता है कि असत्य के मार्ग से चलने वाले लोग ज्यादा सफल होते दिखाई दे रहे हैं। धर्म क्षेत्र में भी असत्य का बोलबाला दिखाई पड़ रहा है तो फिर राजनीति के क्षेत्र में और अन्य सांसारिक क्षेत्र में इसकी सीमा का निर्धारण करना कठिन है। तो फिर एक सवाल उठता है कि "क्या यह आदर्श वाक्य सिर्फ लिखने और बोलने के लिए है?" जहां तक हमारे मनीषियों का संबंध है, उन्होंने जानकर, अनुभवकर यह उद्घोष किया। उन्होंने पाया कि सत्य अवश्यमेव प्रकट होता है अर्थात् बचता है। गीता में भी कहा गया कि सत्य का अभाव नहीं हो सकता और असत्य का भाव नहीं हो सकता। इस पृष्ठभूमि में देखें तो सत्य ही जीतता है, इस बात में बल दिखने लगेगा। हमारी कामना भी यही है कि सत्य ही जीतना चाहिए। फिर भी लोग असत्य में जी रहे हैं। सत्य का व्यवहार किया भी जाता है तो एक साधन की तरह। इस कारण से सत्य हमें मुक्त नहीं करता बल्कि बंधन में डालता है। अतः उस सत्य को समझने के लिए विराट एवं सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। इस दिशा में यह शोध लेख एक विनम्र प्रयास है।
Pages: 854-857  |  554 Views  139 Downloads


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How to cite this article:
डॉ. अंजना रानी. “जैन दर्शन में सत्य की अवधारणा”. Int J Appl Res 2016;2(3):854-857.
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