Vol. 3, Issue 11, Part G (2017)
“संस्कृत ग्रंथों में अहिंसा"
“संस्कृत ग्रंथों में अहिंसा"
Author(s)
डॉ. सर्वजीत दुबे
Abstract
अहिंसा मानवीय संस्कृति का शिखर है। इस परम ऊंचाई को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब व्यक्ति को अनुभव हो जाए कि हम सभी दो नहीं हैं, एक ही सत्य की विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं। अर्थात् अद्वैत का अनुभव अहिंसा की मंजिल तक पहुंचा देता है। संस्कृत के ग्रंथों में यह अद्वैत की भावना अनेक रूपों में प्रकट हुई हैं। 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', 'ईशावास्यमिदं सर्वं' और 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति' जैसे अनेक महावाक्य “अहिंसा परमो धर्म:” की स्थापना करते हैं। हम सभी आत्मा जब एक ही परमात्मा के अंश हैं तो हमारा जीवन परस्पर निर्भर है। एक का दुख दूसरे का दुख है और एक का सुख दूसरे का सुख हो जाता है।अतः ऋषि प्रार्थना करते हैं - 'मा कश्चिद् दुखभाग भवेत्', 'सर्वे भवंतु सुखिन:'। अहिंसा को जीवन में साधना पड़ता है तब इसकी उपलब्धि होती है। इसके लिए संस्कृत ग्रंथों में बताए गए "यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि की योग-साधना से गुजरना पड़ता है। तब व्यक्ति अनुभव करता है कि “अहिंसा परमं सुखम्”।
How to cite this article:
डॉ. सर्वजीत दुबे. “संस्कृत ग्रंथों में अहिंसा". Int J Appl Res 2017;3(11):527-531.